बुधवार, 28 नवंबर 2012
महानायक क्रांतिसुर्य राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले के महापरिनिर्वाण दिवस (28 नवंबर 1890) पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन।
शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012
आखिर क्या चाहते थे बाबासाहब ?
जो लोग समझते है बाबासाहब के छायाचित्र लगाना, जगह जगह उनकी मुर्तिया प्रस्थापित करना, साल में तिन चार बार पूजा करना, जयंती उत्सव मनाना ही बाबासाहब का सम्मान है तो मैं समझाता हु की बाबासाहब के अविरत संघर्ष और कार्य का हमने बहुतही बेहूदा और घटिया मूल्याङ्कन किया है। जिस महापुरुषने अपने जीवन के आखरी क्षणों तक कहा की ' मेरे नाम की जय जयकार करने कीबजाई मेरे दृष्टी से जो महत्वपूर्ण कार्य है उसे अपने प्राणों से ज्यादामहत्व देकर पूरा करने का प्रयास करो' । और विडम्बना तो देखो की उसमहापुरुष के सम्पूर्ण जीवन कार्य तथा आन्दोलन को जोरदार नारेबाजी, रेलीया, जबरदस्त चन्दा वसूली, नशे में जयंती के अवसर पर थिरकते लोग, रंग गुलालऔर नाच गानों पर बेहताशा खर्च इस प्रकार की बातो मैं तब्दील किया जाताहै. और हमें लगता है हम बाबासाहब का सम्मान कर रहे है . और यह सब करते समय हमारी मानसिकता इतनी संकुचित हो गई हैकी हमे लगता है की जो लोग और जो संगठन ऐसा कर रहे है वो बाबासाहब कासम्मान कर रहे है .साथियों यह सब बाबासाहब और हमारे सभी महापुरुषों के आचरण के विरुद्ध है .हम ऐसा करके बाबासाहब के सपनो का भारत निर्माण नहीं कर सकते. खास करकेसमाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने तो ऐसा नहीं करना चाहिए क्योकि बाबासाहब नेबुद्धि जीवी वर्ग के निर्मिती को प्राथमिकता दी है. वे जानते थे कीबुद्धिजीवी वर्ग व्यवस्था परिवर्तन का आन्दोलन चला सकता है . तो क्याअनुसूचित जाती ,अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्य वर्ग सेनिर्मित बुद्धिजीवीवर्ग अपने निर्माताओ की इच्छा अनुरूप कार्यरत है ? इसकी समीक्षा करने केबाद पता चलता है की यह वर्ग ऐसे किसी कार्य मे सक्रिय रूप से भागीदारदिखाई नही देता । इतना ही नही, जिस समाज से यह वर्ग आया है , उस समाज कोभी यह उपेक्षित भाव से देखता है और उससे दूर रहता है । यह अनुभव अपनेजीवन काल के उत्तरार्ध मे बाबासाहब डाँ अंबेडकर को भी हुआ और उन्होने बड़ेही दुखी मन से 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलिला ग्राउंड मे कहा की "मुझेपढ़े लिखे लोगों ने धोखा दिया है, मै सोचता था की पढ़ लिखकर यह वर्ग अपनेसमाज की सेवा करेगा , मगर मै देख रहा हूँ की मेरे इर्द-गिर्द क्लर्को कीभीड़ इकट्ठा हुई है , जो अपना ही पेट पालने मे लगी हुई है ।" यह आहत भावनाइस बात का सबूत है की पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग अपने समाज से और उसकेस्नेहभाव से दूर दूर जा रहा है । यही वजह है की गाँवो मे रहने वाले लोगोके साथ अन्याय, अत्याचार और भेदभाव का व्यवहार बढ़ गया है । जिस कार्य के लिए डाँ बाबासाहब अंबेडकर ने इस वर्ग का निर्माण किया था उसकार्य मे यह वर्ग दिखाई नही देता। जिस वर्ग से नेतृत्व की अपेक्षा की गईथी , वह वर्ग सरकार का नौकर बनकर रह गया है , आधे अधूरे और कच्चे लोगो केहाथो मे आंदोलन की बागडोर छोड़ दी गई है । इसका नतीजा हम देखते है कीहमारे महापुरुषो का आंदोलन आज चलता हुआ नजर नही आता ।
इसलिए बुद्धिजीवीवर्ग को वही कार्य करना चाहिए जिसकी उसके निर्माताओ ने उनसे अपेक्षा कीथी . देशभर मैं गैरबराबरी की व्यवस्था चल रही है. जब तक उस व्यवस्था मैंपरिवर्तन नहीं होता तब तक अनु.जाती, अनु.जनजाति, पिछड़ा वर्ग औरअल्पसंख्य वर्ग के लोग व्यवस्था मैं पिसते रहेंगे, और उनके साथ हर तरह काभेदभाव होते रहेगा . इसीलिए बुद्धिजीवी वर्ग को व्यवस्था परिवर्तन के लिएसंगठित होना चाहिए , संगठित करना चाहिए और एक प्रभावी आन्दोलन बनानाचाहिए. आओं हम सब बाबासाहब डाँ अंबेडकर के जन्मदिन के शुभ अवसर पर उनके सपनो का भारत निर्माण करने का प्रण करते है .
कुलदीप वासनिक
मोब- ८७९६६३५०९३
मंगलवार, 13 मार्च 2012
राजा में मानव और मानव में राजा लोकराजा राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज : भाग १
ने पुरानी प्रशासनिक कौंसिल को भंग कर अपने प्रत्यक्ष निरीक्षण मे राज्य
का काम करने लगे । जनता को ब्रामण कर्मचारीयो के शोषण से बचाने के लिए
सबसे पहले यह आदेश जारी किया की आइंदा से सरकारी कर्मचारी गाँवो मे नकदी
पैसे देकर वस्तुए खरीदेँगे और रसिद प्रस्तुत करेंगे । अदालतो के सारे
कर्मचारी तथा न्यायाधीश ब्रामण हुआ करते थे । उनके शोषन से किसानो को को
बचाने के लिए दूसरा आदेश जारी किया की अदालत किसानो के पशुओं की नीलामी
नही करेगी । उन्होने शुद्रो, अतिशुद्रो, मुसलमानो सभी को खुलेआम उनसे
मिलने की इजाजत दी । राज्य मे अकाल तथा प्लेग जैसी आपदाओ के वक्त किसानो
के पशुओ की देखरेख करने की ज़िम्मेवारी राज्य ने स्वयं ली ।
शुद्रो की रस्मो मे ब्रामणो को नहाने की जरूरत नही । ब्रामण नेता तिलक ने
कहा की मराठे नीची जाती के लोग है और अगर धार्मिक रस्मे कर भी लेंगे तो
ब्रामण नही बन जाएँगे । तिलक ने छत्रपति शाहु महाराज को गंभीर परिणाम
भुगतने की धमकी दी । शाहु महाराज उच्च शिक्षित थे । जुन 1902 मे केंब्रिज
विश्वविद्यालय ने उन्हे एल. एल. डी. की डिग्री प्रदान की थी । शाहु
महाराज तिलक जैसे ब्रामणो को उनकी औकाद दिखाने की क्षमता रखते थे ।तिलक
जैसे ब्रामणो की धमकियो से विचलित हुए बिना शाहू महाराज ने शुद्र छात्रो
के लिए छात्रावास बनाकर उसमे उनके रहने ,खाने ,पीने ,किताबो, कपड़ो की
निःशुल्क व्यवस्था की । ब्रामणो के विरोध की धज्जिया उडाकर शाहू महाराज
ने अपने राज्य की नौकरियो मे जाती , जनजाति , पिछड़ो के लिए 50% आरक्षण
उपलब्ध कराया ।
किया था तथा जिसने अपने बीए व एमए की परीक्षा मे भी प्रथम स्थान हासिल
किया था को 1 जुलाई 1895 से राज्य के सहायक सारसुबा पद पर नियुक्त किया ।
तो ब्रामणो ने जाधव को इतने बड़े पद पर नियुक्त करने के निर्णय पर हाय
तौबा मचाई । राज्य के सारे ब्रामणवादी अखबार राजर्षी शाहू महाराज के
निर्णय के खिलाफ आग ऊगलने लगे । कथित समाजसुधारक ब्रामण रानडे तक ने शक
जताया की क्या सचमुच जाधव एक ब्रामण जैसा कुशल है ?
पंडे पुजारी ब्रामणो ने कहा की राज्य मे अपशकुन होने वाले है , अनर्थ
हो जाएगा ; महलो मे दुर्घटनाए होगी ताकी ब्रामण खुद ही भीतराघात कर उसे
दैवीक आपदा के आड़ मे छिपा सके और शाहु महाराज डरकर शुद्रोँ कि नियुक्तिया
रद्द कर दे । उनका निवारण करने के लिए जाप ताप इत्यादि करने का आग्रह
किया लेकिन शाहु महाराज ने ब्रामणो को कह दिया की जाप के बाद भी अगर कोई
दुर्घटनाए होती है तो जाप करने वाले ब्रामणो को जेल की हवा खानी होगी ।
यह सुनते ही जाप का आग्रह करने वाले ब्रामण खिसक गए । सन 1903 मे शाहु
महाराज ने मठ संपत्ति और शंकराचार्य की सभी ताकते और अधिकार वापस लेने का
आदेश जारी किया । का आदेश जारी कर दिया । तिलक और सभी ब्रामणो ने
अपनी पराजय को स्वीकार करते हुए शाहू महाराज के राजकाज मे सहयोग करने का
वादा करके अपनी सहुलतो को वापस बहाल करा लिया । लेकिन ब्रामणो के मन मे
शाहू महाराज से इतनी नफरत हो गई की ब्रामणोने शाहू महाराज की हत्या करने
की कोशिशे की पकड़े गए नंडुम नामक ब्रामण ने अदालत मे बयान दिया की किसी
ने उसे तीस रुपए देकर महाराज के सलाहकार फारस को गोली मारने और महाराज की
लड़की की शादी मे बम फेंकने को कहा था । यह योजना भले ही नाकाम हो गई फिर
भी कोल्हापुर मे कई स्थानो पर बम धमाके किए गए ।सन 1908 मे शाहु महाराज
के रास्ते मे बम रखा गया परंतु बग्गी देर से पहुचने के कारण बम किसी अन्य
टाँगे के नीचे फट गया .............
शुक्रवार, 9 मार्च 2012
क्या भारत के मूलनिवासी वास्तव मे गुलाम है ?
पुर्ण सवाल है ।कोई भी व्यक्ति या समूह जब पराजित हो जाता है, तब विजेता
लोग उसको गुलाम बना देते है ।मगर पराजित लोग इसका अपने ताकत के अनुरूप
विरोध करते है ।प्रारंभ मे यह होता है ,मगर धीरे धीरे जो लोग पराजित होते
है वह लोग अपना इतिहास और अपने तौर तरीके भूल जाते है ।इस तरह सेउनकी
पहचान समाप्त हो जाती है ।जैसे ही, उनकी पहचान समाप्त हो जाती हैऔर अपना
इतिहास और उसका गौरव भूल जाते है,तब इसका अहसास भी समाप्त हो जाता है
।जब गुलामो की अपनी पहचान समाप्तहो जाती है ,तब विजयी लोगो का अनुकरण और
अनुसरण पराजित लोग शुरू कर देते है ।जब यह अनुकरण और अनुसरण शुरू हो जाता
है तो पराजित लोगो का मूल अस्तित्व समाप्त हो जाता है । अपना मूल
अस्तित्व खोकर विजेताओ की परंपराओ का अनुसरण करके अपना अस्तित्व और पहचान
मिटाना शुरू कर देते है ।यही पर गुलामो की गुलामी का अहसास समाप्त हो
जाता है ।जब गुलाम को गुलामी का एहसास होना बंद हो जाता है उसी वक्त कोई
भी जाती या समूह वास्तव मे गुलाम बन जाता है । ऊपर उल्लेखित धारणा से अगर
देखा जाए तो यहा का मूलनिवासी वास्तव मे गुलाम है।भारत के अलावा दूसरे
देशो मे भी गुलाम बनाए गए है, मगर गुलामो की शिक्षा के अधिकारो से वंचित
नही किया गया । लेकिन भारत मे शिक्षा के अधिकारो से मूलनिवासी गुलामो को
वंचित कर दिया गया ।जिससे भारत का मूलनिवासी केवल गुलाम नही रहाबल्कि
पक्का गुलाम हुआ । हम इसे पक्का गुलाम इसलिए कहते है क्यो की मूलनिवासी
गुलाम लोग अपने गुलामी का गर्व और गौरव करते है ।गुलामी मे सुख और आनंद
का अनुभव करते है । विजेताओ की परंपराओ का यानी युरेशियन ब्रामणो की
परंपरा, धर्म, संस्कार, समाज व्यवस्था का केवल अनुकरण और अनुसरण नही करते
बल्कि गर्व और गौरव करते है ।युरेशियन ब्रामणो ने दिया हूआ यह नारा "गर्व
से कहो हम हिंदू है ।" इसका हम मूलनिवासी गर्व और गौरव से प्रतिध्वनित
करते है ।यही इस बात का सबूत है की हम गुलामी का गर्व और गौरव करते है
।इस स्थिति से मूलनिवासीयो को मुक्त करने की आवश्यकता है । मूलनिवासी यो
को किसने गुलाम बनाया यह बात सर्व विदित है की वर्ण व्यवस्था जाती
व्यवस्था और अस्पृश्याता युरेशियन ब्रामणो के बड़े हथियार है । इन हथियारो
का प्रयोग और उपयोग करके मूलनिवासीयो को पराजित किया गया और पराजित करने
के लिए कई साजिशे हथकंडे किए गए ।यह सब करने वाले लोग युरेशियन ब्रामण थे
।इस तरह से मूलनिवासीयो को गुलाम बनाने वाले लोग युरेशियन ब्रामण है ।जिन
लोगो के पास विचारधारा नही होती,जो लोग अपने दुश्मनो को ठीक ठीक नही
पहचानते ,अपने दोस्तो को ठीक नही पहचानते और जिनको इतिहास का सम्यक आकलन
नही होता, जिनके पास व्यवस्था परीवर्तण का शास्त्र और शक्ति नही होती और
उस उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग करने का ज्ञान और कुशलता नही होती वे लोग
जागरूक नही होते । इस तरह तरह से जो लोग जागरूक होते है वे अज्ञानी और
अजागरुक लोगो को अपनी जागिर बना लेते है अपनी संपत्ति मानना शुरूकरते है
।युरेशियन ब्रामणो ने यही किया और कर रहे है ।इसलिए युरेशियन ब्रामण
मूलनिवासियो के शत्रु है ।
आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा' , 'स्वामी समर्थ' और शेँगाव के 'गजानन महाराज' ?
स्वामी एक जगह कभी बैठते नही थे । दिन मे सात आठ बार वो जगह बदलते ईसिलीए ऊन्हे चंचल भारती भी कहते । अक्कलकोट मे स्वामी के स्वतंत्र आश्रम की व्यवस्था की गयी थी । ईस काम मे राणी साहब बहूत ज्यादा ध्यान देती । ईस प्रकार ब्रामणी खोपडी ने मतिमंद सदाशिवराव का स्वामी समर्थ महाराज किया था ।स्वामी के दर्शन से हमारे तूम्हारे प्रश्न छुटते है , भाकड गाय दुध देती है , स्त्रियो को बच्चे होते है । ऐसा प्रचार अडोस पडोस के गांवो मे किया जाता प्रचार मे ब्रामण स्त्रियो का भी सहभाग रहता । पेशवाओ के दफ्तर के दस्तावेजो के प्रमाण से पता चलता है की ब्रम्हेंद्रस्वामी धावडशिकर ये स्वामी के भेस मे शाहूकार और बद्चलन आचरण के थे । ब्रंम्हेँद्रस्वामी के पास लगभग 20 स्त्रि दासिया थी । जहा जहा स्वामी रहते वहा वहा स्त्रि दासिया जाती । ऊनमेँसे कुछ प्रसिद्ध दासियो के नाम ईस प्रकार से है सजनी, गंगी, सोनी, लक्ष्मी, मानकी, नागी, राधी, गोदी, नथी, कृष्णी, यशोदा, नयनी, आनंदी, ई . ये सभी पेशवाओ कि तरफ से नजराणा था ऐसा जानकारो का कहना है । ईतनाही नही जिनको पुत्रप्राप्ती नही होती थी ऊनको स्वामी के पास लाया जाता और ऊनको स्वामी का विशिष्ट प्रसाद दिया जाता । कुछ रातो को तो स्वामी के मठो से अनैतिक मार्ग से पुत्रप्राप्ती की जाती । ईस सारे खेल पर पेशवाओ के जबरदस्ती कि वजह से परदा पड जाता । यही रित स्वामी समर्थ कि थी ऐसा दस्तावेजो के आधार पर प्रमाणीत किया जा सकता है ।
' मुंगी पैठण की विठाबाई '
स्वामी के दर्शन को भक्त आने लगे आश्रम मे गाय, बकरी, कुत्ते, बिल्लियो की संख्या बढने लगी । केशर कस्तुरी के मिश्रण करके पेशवाओ की तरह सीर पर गंध लगाया जाता स्वामी कभी दाढी रखते कभी निकालते वे लहरी स्वभाव के थे ।स्त्रीयोँ के सत्र मेँ पुरुषो को प्रवेश नही था । स्वामी को कभी कभी साडी चोली पहनाकर बिठाया जाता पर स्वामी अधिकतर लंगोठ पहनकर बैठना पसंद करते । मुंगी पैठणकी विठाबाई ये भि स्वामी की दासी थी । एकबार ऊसने चोलप्पा गणपत को साथ मेँ लेकर पंढरपुर जाने का विचार किया । स्वामी को ये समजने के बाद स्वामी ने सबके सामने उसको पुछा की क्या ? अब तक विठोबा का लिंग पकडने नही गयी ? यह सुनकर वहा ईकठ्ठा हूई सभी औरतो ने शर्म से गर्दन निचे कर दी (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र. 46)।
" सुंदराबाई प्रकरण "
दिन ब दीन अक्कलकोट मे भक्तो कि संख्या बढती गयी वैसे संस्थान मे पैसो की आमदनी भी बडी । उसी दौरान सुंदराबाई नाम की तरुण विधवा स्वामी की दासी बन गयी ।वो गणपत चोलप्पा बालप्पा ईनको आदेश देने लगी । तो स्वामी ऊसको कहते " ऐ रांड नौकरणी ये क्या तेरे घर के नौकर है ? "। स्वामी खाना खिलाना नहाना दर्शन के लिए तयार करना ये सभी काम वो करती ।ऊसने स्वामी को ऊठने को कहा तो वो उठते सोने को कहा तो सोते ।ईतनाही नही भक्त दर्शन के वक्त सुंदरा स्वामी को पत्नी कि तरह चिपककर बेठने लगी । संस्थान का अनगिनत पैसा सुंदराबाई हडप करने लगी ।तक्रार करने पर शिष्यो ने ऊसे जेल मे डाल दिया ।
स्वामी अवतार थे पर स्त्रिलंपट थे आखिर मामला पोलीसो तक पहूचना जरुरी था , स्वामी समर्थ के अवतारवाद पर प्रश्नचिन्ह खुद स्वामी ने ही लगाया ।ये अवतार न होकर पाखंड था ये सिद्ध हो चुका है ।
स्वामी की बखर मे 264 प्रकरण है वह सभी देणा शक्य नही । एक बार कर्वे नाम का ब्राम्हण स्वामी को मिलने आया कर्वे ईनकी जवान लडकी बिघड गयी थी । स्वामी ने कहा " होली किजिए " कर्वे को बडा ही धक्का पहूचा तो ऊनोने पुछा आपकी जाती कोनसी ? तो स्वामी ने जवाब दिया " यजुर्वेदी - ब्रामण, गोत्र- कश्यप , रास - मिन " (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र 58 ) । ई स 1800 को स्वामी की मृत्यु हो गयी स्वामी तब वे सत्तर साल के थे । ई स 1800 मे चैत्र शुद्ध पुर्णीमा को ऊनका मृत्यु हूआ स्वामी की प्रेतयात्रा को हाती सचाये हुए घोडे तोफदार जरिपटका के पेशवे निषाण बारुदकाम करने वाले ऐसा माहौल था । स्वामी पर भरजरी पोशाख व अलंकार चढाए गये । स्वामि को आखिर मेँ सुगंधी पेटी मे बंद किया गया ऐसा बखर मे लिखा है .
परंतु 14 जनवरी 1761 को मैदान से भागे हुए सदाशिवराव का अंत हुआ था ।स्वामी मंगलवेढा मे रहते समय पेशवाऔ की तरफ से उनको मिलने वाला खर्चा कभी बंद नही किया गया स्वामी ने एक बार मालोजिराव के गाल पर थप्पड लगाई ऊसका कारण यही था कि सदाशिवराव ही स्वामी समर्थ थे । आगे यही प्रयोग तात्या टोपे और नानासाहब पेशवा के साथ किया गया । क्योकी ब्रामण मतिमंद पागल आदमी को स्वामी समर्थ बना सकते है तो सिर से पैरो तक ठिक ठाक दिखने वाले तात्या टोपे को गजानन महाराज और नानासाहब पेशवा को शिर्डी के साईबाबा क्यो नही बना सकते ?
" तात्या टोपे ही है गजानन महाराज "
1818 को भिमा कोरेगाव पेशवाओ की हार हुई ।भारत मे अंग्रेजो कि सत्ता प्रस्थापित हूई । अंग्रेजो के विरुध कयी लड़ाईया हुई उनमेसे 1857 की लड़ाई एक संगठित प्रयास था । परंतु तात्या टोपे, नानासहब पेशवा , लक्ष्मीबाई ईनके नेतृत्व मे किया गया यह प्रयास असफल साबित हुआ । हारने के बाद ये लोग भूमिगत हो गए । नानासाहब पेशवा तात्या टोपे रंगो बापुजी ये लोग साधु पंडीतो का भेस धारण कर भटक रहे थे ('रंगो बापुजी' लेखक-प्रबोधनकार ठाकरे-(शिवसेना के बाल ठाकरे के पिता), पान क्र 270) कई लोगो को फासी दि गयी पर परंतु ऊनके रिश्तेदारो ऊनकी लाश पहचान से ईनकार कर दिया । करीब एक साल पहले कि बात है दैनिक जागरण मे एक व्रुत्त प्रकाशीत हूआ है , तात्या टोपे को फासी दि गई पर वो कोई दुसरा ही था , ऐसी खबर है । लेखक ताम्हणकर का कहना है की तात्या टोपे का वर्णन शेगांव के गजानन महाराज से मिलता जुलता है ,शेगांव मे प्रकट होने वाले गजान महाराज तात्या टोपे ही है ऐसा उनका स्पष्ट कहना है ।साईबाबा और गजानन महाराज एकही वक्त मे होके गए । दोनो को चरित् मे दोनो की कभी मुलाकात होने की खबर नही मिलती ।परंतु जब गजानन महाराज का मृत्यु हुआ तो इधर साईबाबा ' मेरा गया रे ' कहकर दुःख व्यक्त कर रहे थे । असल मे ये लोग संत महापुरुष थे ही नही ब्रामणो ने बनाए हुए बेहरुपीये थे । सुख दुःख के भी आगे निकल चुके संतो से तो ये अपेक्षीत नही की वे अपना सेनापति मरने का दुःख जाहिर करे पर इसका दुःख नानासाहब को हुआ । ' सांईबाबा मतलब दुसरा नानासाहब पेशवा ' !
साई यह नाम इसा से लिया गया है ।
केसरी प्रकाशन ने प्रकाशित किया गया ' पेशवा घराणो का ईतिहास ' ईस किताब मे लेखक प्र ग ओक कहते है दुसरे बाजिराव ने 7 जुन 1827 को गोविंद माधवराव भट ईस लडके को गोद लिया । उसकी जनतारिख 6 दिसंबर 1824 ऐसी है । मतलब 1857 के युद्ध मे दुसरे नानासाह पेशवा 32 साल के थे ।
नानासाहब पेशवा को संस्कृत , पर्शियन(ईराणी) , ऊर्दू ईन भाषाओ का ज्ञान था । नानासाहब पेशवा हमेशा किनरवापी कुर्ता डालते । शिर्डी के साईबाबा का द्वारकामाई चावडी के पास का फोटो सबके परिचय की है ।
28 फरवरी 1856 को अंग्रेजो ने नानासाहब पेशवा को पकडने के लिए इनाम जाहिर किया था । रंग गेहुआ , बडी आंखे , छह फिट दो इंच लंबाई, सिधा नाक, साथ मे तुटे कान का नोकर ऐसा भेस जाहिर किया गया था । नानासाहब समझ कर दूसरे किसीको ही फासी दी गई थी । असल मे नानासाहब कबके फरार हो चुके थे । साई यह गांव मै जहा पे पढता हू ऊधर रायगड जिले (महाराष्ट्र) के चिरनेर के पास है । परंतु साई यह नाम ब्रामणो ने येशु ख्रिस्त के ईसा का उलटा लिया है ।
ब्रामण मतिमंद पागल सदाशिवराव को स्वामी बना सकते है तो नानासाहब पेशवा को शिर्डी का साईबाबा भि बना सकते है ।ईन स्वामी बाबा महाराजाओ को लोगो को गाली देने कि आदत थी । और स्वामी समर्थ और साईबाबा ईनकी काठी एक जैसी ही है । और काठि पर हात रखने का तरीका भी एक जैसा है यह विशेष।
ओर दुसरी विशेषता तो यह है की इनको कई तरह की गंदी आदते भी थी उनमे से एक गजानन महाराज की गांजा पिते हूए एक तसविर बहुत लोकप्रिय है ।अय्याशीयो से ही गांजा पीने की आदत लगती है ।
मुलनिवासी बहूजनो के संत मोह, माया, संपत्ती से दुर रहकर लोगो को जिने का मार्ग दिखाते । ' व्रत काया कल्पो से पुत्र होती, तो क्यो करने लागे पती ' । यह भावना विज्ञानवादी विचारधारा का ऊदाहरण है । चिलिमधारी गांजाधारी फोटो का मानसशास्त्रिय परिणाम छोटे बच्चो तथा समाज पर क्या होता होगा ?।वर्तमान मे जो काला पैसा कमाते है , भाईगिरी , चोरी खुन करके पैसा कमाते है , बडे बडे गुंडो के आश्रय से राजनिती मे आते है । 'चरीत्रहीन काम करके मै ही चरीत्रवान ' ईसलिए दर्शन के लिए बिना किसी लाईन मे लगके दर्शन के लिए ज्यादा का पैसा देकर शार्टकट दर्शन लेते है । अमिताभ बच्चन का दर्शन घोटाला तो बडा ही फेमस है । बाल ठाकरे ने भि साईबाबा को क्या क्या नही दिया था यह प्रकरण भि बडा ही फेमस हूआ था । काँग्रेस, राष्ट्रवादी , बिजेपी के नेताओ ने पुंजिपतियो ने कितना पैसा ईन मंदिरो को दिया ईसका कोई हिसाब है ? । यह राजस्व प्राप्त करने का नया तरीका है क्या ? भारत को आजादी मिलने के बाद संस्थानिको के संस्थान विलीन किए गए बदले मे उनको तनख्वा देने कि व्यवस्था कि गई कुछ दिनो बाद भारत सरकार ने तनख्वा बंद किया । ऊसके बाद संस्थाने राजापद इतिहासगत हो गई । परंतु आजादी के बाद अस्तित्व बनाए रखने वाली ब्रामणी व्यवस्था की संस्थाने गब्बर होती जा रही है । इन संस्थानो के आश्रय से अंदर बैठने वाले बुवा , बापु , बाप्या , स्वामी, दादा, नाना-महाराज, सद्गुरू इनकी कृपा से हमारे तुम्हारे प्रश्न चुटकी बजाते ही छुट जाएंगे ऐसा प्रचार यह ब्रामण और ऊनके दलाल हमेशा करते रहते है । धर्म , भक्ती, सेवा, श्रद्धा, अध्यात्म, ब्रामणी कर्मकांड ईनको आकर्षित होकर खुद ही ब्रामणी संस्थानो मे प्रवेश करते हैँ । नसिब पर विश्वास रखकर जिने लगते है । दैववादी बन जाते है । ब्रामणी कर्मकांडो के जाल मे फस चुके लोगो का कर्मवाद पर से विश्र्वास कम होते जाता है ओर वो ब्रामणो का मानसिक गुलाम बन जाता है। ईनमे अशिक्षित शिक्षितो के साथ अमिर गरीब सभि का जमाव रहता है ।
विशेषता तो यह है की मानसिक विकलांग लोग खुद को ब्रामणी व्यवस्था के गुलाम कभी नही समझते । ईसकी कल्पना तक नही करते ।
गुलामी की बेडीया तोडने का काम तो दुर ही ।ईन संस्थानो मे श्रद्धा के नाम पर लोगो से पैसा निकालने की योजनाए बनाई जाती है ।काकड आरती, महाआरती ,पालखी , ऊत्सव ,अभिषेक ,दर्शन ऊत्सव ,बेडिया, व्रत, मृतआत्माओ को खुश करना, चुटकी बजाते अमिर होना ,गुप्तधन, दिर्घायुष्य माला ,होम हवन ईन सब के द्वारा वो आपके जेब मे हात डालते हैं। इसतरह करोड़ो रुपयो का निधि रोज के रोज संस्थानो की दानपेटीयो मे झरने समान गिरते रहेगा ऐसी ब्रामणी षडयंत्रकारी योजना है । भारत के वित्तिय बजट से दस गुणा ज्यादा रकम मंदिरो मे हर साल जमा होती है, वो कहा जाती है । जहा पे भुखमरी से लोग मर जाते है , किसान आत्महत्या करते है , वही पे होम हवन करके लाखो रुपयो का दूध , दही , घी ,अनाज जलाया जाता है । यही इस देश की दुविधा है ।
जिन पेशवा ब्रामणो ने छत्रपति शिवाजी महाराज को जहर देकर मारा वही ब्रामण पेशवा अर्थात साईबाबा, गजानन महाराज, स्वामी समर्थ हमारे प्रेरणास्त्रोत कैसे हो सकते है ? जिन पेशवा ब्रामणो ने अछुतो के गले मे मटकी बाँधकर उनका थुकना तक पाप होता है ऐसा माना , उनके पैरो के निशान भी जमीन पर नही दिखने चाहिए इसके लिए उनके कमर को झाडु लगाया , ऐसे लोगो को हम अपना प्रेरणास्त्रोत कैसे मान सकते है ? फुले , शाहू , आंबेडकर ईनोने जो 108 साल जो क्रांतीकारी संघर्ष किया , जिससे गले की मटकी दूर होके उसके जगह टाई आ गई । शरीर पर कोट, सुट अच्छे कपड़े आ गए । पैरो मे जूते आ गए । जिन ब्रामणो ने ओबिसी को शुद्र कहा आज लोकतंत्र मे वही ब्रामण राजा बने हुए है ।
मुलनिवासी बहूजनो ने अपने महापुरूषो को प्रेरणास्थान मानना चाहीए । अपने बाप को ही बाप मानना चाहीए ।
पेशवा ये विदेशी युरेशियन ब्रामण है । वे अंग्रेजो से झगडते वक्त हार गए और भाग गए अंग्रेज पकड़ेंगे इस डर से ईन लोगो ने दूसरा मार्ग अपनाया वो मतलब साधु , स्वामी बनना । शिर्डी के साईबाबा - दुसरा नानासाहब पेशवा , स्वामी समर्थ -सदाशिवराव पेशवा , गजानन महाराज - तात्या टोपे ये सभी पेशवा ब्रामण है यह इतिहास से सिद्ध हो चुका है ।
इन संस्थानो के मेडिकल इंजिनिअरींग काँलेजेस है । यहा पे ब्रामणो के बच्चे पढते है और बाद पास होने के बाद इन विध्यार्थीयो से दो साल के लिए पुर्णकालिन कार्यकर्ता बनाकर काम करवाया जाता है ।आगे यही विध्यार्थी ब्रामणी व्यवस्था के कट्टर समर्थक कार्यकर्ता बनकर ब्रामणी व्यवस्था का मेंटेनन्स करने का काम करते है ।
यह लेख मराठी दै मुलनिवासी नायक मे आया हूआ है ।पाठको कि निरंतर मांग के कारण ईसे बार बार प्रकाशित किया गया ।दै मुलनिवासी नायक ने ईन तिनो ब्रामणो को नंगा किया तबसे कुछ महाराष्ट्र के ब्रामणी चँनलो ने अनैतिक टिवी सिरिअल्स शुरु कीये । महाराष्ट्र मेँ तो यह लेख गांव गांव मे पहूच चुका है । ईसिलिए पुरे देशभर के मुलनिवासी साथीयो को जाग्रत करने के लिए ईसका हिंदी अनुवाद किया हू । ईसको ध्यान मे रखते हूए सभि मुलनिवासी साथियो से विनती है की ईसे ज्यादा से ज्यादा मुलनिवासी साथियो के साथ शेअर करे और हो सके तो ईसकी प्रिँट निकाल कर लोगो मे ईसकी प्रतिया बाट सकते है । जल्द ही ईस पर मुलनिवासी पब्लिकेशन ट्रस्ट कि तरफ से एक शोध पुर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने वाला है । जय गुरु रविदासजी, जय जिजाऊ , जय शिवराय, जय भिम , जय मुलनिवासी !
लेखक ; प्रो . विलास खरात ,
अनुवाद ; कुलदीप वासनिक
एकबार शाहू महाराज ने कहा .....
सुनो ! केलवकर हुआ यूँ कि मैं एकबार सतारा गया था । हमारे लिए ही भोजन का कार्यक्रम चल रहा था । भोजन ब्राह्मणी पद्धति का था । ब्राह्मण आचारी भोजन तैयार कर रहे थे । खाने का समय हो चला था । स्नान कर मैं यह देखने के लिए घूमने लगा कि भोजन की तैयारी कहाँ तक पहुंची है । बहुत सारे हंडे थे । उनके बीच अंतर भी बहुत था । एक नंग-धड़ंग आचारी ब्राह्मण हाथ में बिल्ली लेकर इधर -उधर घूम रहा था । उसने मुझे देखा व बोला , “यहाँ घूमने नहीं दिया जाएगा , आपके छूने से सारा गड़बड़ -घोटाला हो जाएगा” । इन शब्दों के कान में पड़ते ही मेरा कलेजा मुंह को आ लगा । उस बिल्ली की अपेक्षा मेरा दर्जा निम्न है ? मैं स्वयं से यह प्रश्न पुछने लगा । छत्रपति होते हुये भी जहां मेरा ऐसा अपमान होता हो वहाँ अस्पृष्यों का कितना अपमान होता होगा ? इसीलिए मुझे लगता है कि महार बच्चों को पास लेकर खाना खाऊँ । ऐसे महान ,संवेदनशील व मानवतावादी राजा का वर्णन करते समय शब्द कम पड़ जाते हैं । इन यूरेशियन ब्राह्मणो को राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज का ,छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज का ,कोल्हापुर रियासत के मालिक का ,मराठों के प्रतिनिधि का स्पर्श अपवित्र लगता था लेकिन बिल्ली जैसे प्राणी का स्पर्श अपवित्र नहीं लगता था । इसका मतलब वह यूरेशियन ब्राह्मण राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज की अपेक्षा बिल्ली को पवित्र मानता था तथा महाराज को अपवित्र मानता था । धन्य हैं वे यूरेशियन ब्राह्मण और धन्य है उनकी वर्ण-व्यवस्था व अस्पृश्यता । और धन्य है आज के यूरेशियन ब्राह्मण जो उपरोक्त सभी बातों का समर्थन करते हैं ।
………………………माणगाँव परिषद के बाद नागपुर में अखिल भारतीय बहिष्कृत समाज की परिषद 30 मई 1920 को पुनः दोनों महापुरुष इकट्ठा हुये । परिषद के अध्यक्ष राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज थे । अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होने कहा –किसी को अस्पृश्य कहना निंदनीय है । आप अस्पृश्य नहीं हैं । आपको अस्पृश्य मानने वाले सभी लोगों की अपेक्षा आप अधिक बुद्धिमान ,अधिक पराक्रमी ,अधिक सुविचारी व अधिक त्यागी हैं व भारत के एक घटक हैं । मैं आपको अस्पृश्य नहीं मानता । हम सभी एक जैसे एक दूसरे के भाई-बंधु हैं । निश्चित ही हमारे अधिकार भी एक हैं । भाषण के अंत में उन्होने कहा, “आपने मुझे अपना माना है । अंतिम समय तक यह प्रेम बनाये रखें ।कितना भी कष्ट हो ,त्रास हो उसकी फिक्र न कर मैं आपकी उन्नति के महान कार्य में शामिल रहूँगा”।