बुधवार, 28 नवंबर 2012

महानायक क्रांतिसुर्य राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले के महापरिनिर्वाण दिवस (28 नवंबर 1890) पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन।

1848 मे ही राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रामणवाद के मजबूत किले मे सुरंग लगाकर उसे जर्जर करने का काम किया तब उनकी उम्र केवल 21 साल थी । और आज राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले हम सभी मूलनिवासी बहुजनो के प्रेरणास्त्रोत है । परंतु जब वे 21 साल के थे तो उन्हे भी प्रेरणा की जरूरत थी और वो प्रेरणा उन्होने कुलवाडीभुषण बहुजनप्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज से ली । राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले पुना से रायगड आए और रायगड किले पर कुलवाडीभुषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि ढुंढ कर उस श्रद्धा सुमन अर्पीत कर सबसे पहले सार्वजनिक शिवजयंती उत्सव की शुरुवात की । राष्ट्रपिता फुले कहते है की जब वे छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि पर श्रद्धा सुमन अर्पण कर रहे थे तब नीचे के गाँव से एक जोशी ब्रामण आया और कहने लगा की मै यहा ग्राम जोशी होते हुए भी मुझे दान दक्षिणा पूछे बगैर तुने कुणबी (कुर्मी) शिवाजी को भगवान बना दिया ? जो शुद्रो का राजा था । और उसने छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि पर लात मार कर वे सारे फूल फेंक दिए । राष्ट्रपिता फूले कहते है की तब तो उन्हे इतना गुस्सा आया की उस ग्राम जोशी को पटक दे । परंतु उन्होने संयम रखा और कुलवाडी भुषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज पर मराठी मे पहला पोवाळा (गीत) लिखा । और दूसरा गीत लिखा मोहम्मद पैगंबर साहब पर । डाँ बाबासाहब अंबेडकर के अनुसार उन्हे मराठी, अंग्रेजी, उर्दु ,कन्नड, मद्रासी तथा गुजराती ऐसी छह भाषाए आती थी । राष्ट्रपिता महात्मा फूले ने तर्क पर आधारित 'सार्वजनिक सत्य धर्म ' विकसित किया (Dr Ambedkar vol 19, page 502)। ब्रामण शुद्रो को अपने मतलब परस्त ग्रंथो से हजारो सालो से नीच मानकर उन्हे धोखे से लुटते रहे इसलिए शुद्रो को उनके वास्तविक अधिकारो से अवगत कराने तथा ब्रामणो कि गुलामगीरी से मुक्त कराने राष्ट्रपिता महात्मा फूले ने 24 सितंबर 1873 को सत्य शोधक समाज की स्थापना की । उनका आग्रह था की प्रत्येक बहुजन ने अपनी सभी सामाजिक विधियाँ किसी भी पुजारी के बगैर खुद ही करनी चाहिए ताकि शोषक पुजारी वर्ग विकसित ही न हो सके । सत्यशोधको कि शालाओ मे लोगो को सिखाया जाता था की शादी जन्म मृत्यु ई सामाजिक विधियों को बिना किसी अंधविश्वास से कैसे अंजाम देना चाहिए । 1914 मे सत्यशोधकोने स्वयं पुरोहित तथा घरका पुरोहित नामक किताबे प्रकाशित की (गेल आँमव्हेट page 84, 147,152) । राष्ट्रपिता महात्मा फूले के अनुसार आर्य ब्रामण अपनी शोषक वृत्ती को छोड़ना ही नही चाहता इसलिए हर बात मे खुराफते करते रहता है इस दुनिया मे सबको प्रिय ऐसा क्यो कोई ब्रामण है ? इसलिए हमे ब्रामणो की संगति नही करनी चाहिए क्योकी उनका स्वार्थ आते ही अंतत: वे शुद्रो को धोखा देते है (महात्मा फुले समग्र लिखित साहित्य page 467,470) । राष्ट्रपिता महात्मा फूले के अनुसार शुद्र बहुजनो ने आर्य ब्रामणो को दान मे जुते और लाठिया देनी चाहिए । शुद्र अगर अपने मानवी हकोँ से वाफिक हो जाए तब इन आर्य भटो को को कौन बचाएगा? इसलिए आर्य भटो ने अपने दुष्कार्य छोड़ देना चाहिए तब भविष्य मे उनकी संतानो को कोई डर नही रहेगा (म. फुले समग्र लिखित साहित्य page 478,489) ।राष्ट्रपिताफूले कहते है की शुरू मे मेरे सहकारी ब्रामण थे परंतु जब मै विध्यार्थीयोँके सामने ब्रामणो के पुर्खो कि धोखेबाजी उजागर कर रहा था तो ब्रामणो मे और मुझमे झगड़े होने लगे और बाद मे वे सारे मुझे छोड़ कर चले गए । इसका मतलब है की ब्रामण हमे अक्षरज्ञान तो देना चाहता है पढ़ लिख कर हम ब्रामणो के समर्थन मे बोलने वाले पोपट बन जाए तो ब्रामण हमे पद्मश्री ,पद्मभुषण देंगे विश्वविद्यालयो के कुलगुरु तक बनाएँगे , मंत्री प्रधानमंत्री बनाकर भारत रत्न भी देँगे परंतु अगर हम लोगो को जागरूक कर रहे है तो ये ब्रामण कतई बर्दाश्त नही करँगे। आगे राष्ट्रपिता महात्मा फुले कहते है की बहुजनो के शिक्षक भी बहुजन ही होने चाहिए । बहुजनो के शिक्षक ब्रामण होने का मतलब बहुजनो की शिक्षा को मिट्टी मे मिलाना है । डाँ बाबासाहब का भी यही कहना है डाँ बाबासाहब अंबेडकर के मुताबिक जातीयता जिनकी नस नस मे बसी है जो औरों को जानवर से बदतर समझते है , ऐसे लोगो को शिक्षक बनाकर और कितने दिन समाज का बंटाधार किया जाएगा (Dr Ambedkar vol 19 page 146-47)। राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने बहुजनो के लिए खोली हुई शाला कि मातंग समाज की 11 साल की छात्रा मुक्ता सालवे अपने निबंध मे कहती है की अगर हमे वेद पढ़ने का अधिकार नही है अगर ये हमारे धर्मग्रंथ नही तो फिर हमारा धर्म कौनसा है ? बाबासाहब अंबेडकर ने 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर मे बौद्ध धर्म मे प्रवेश करने की जो भूमिका रखी उसका पहला हुँकार मा. मुक्ता सालवे के इस सवाल मे देखा जा सकता है । राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने विश्व मे पहली बार " जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी " का सिद्धांत प्रस्तुत करके बहुजनो को हर क्षेत्र मे भागीदारी प्रदान करने का अनुरोध किया ( महात्मा फूले समग्र लेखन साहित्य page582 )। डाँ बाबासाहब अंबेडकर ने बंबई के पूरँदरे स्टेडियम मे 28 अक्तूबर 1954 मे दिए अपने भाषण मे कहा की बुद्ध, कबीर, और ज्योतिराव फुले मेरे तीन गुरु है । ज्योतिराव फुले गैरब्रामणो के सच्चे गुरु थे शुरू मे हम सभी बहुजन पहले राजनीति मे उन्ही के बताए हुए रास्ते पर चल रहे थे । आगे चलकर मराठा समाज के कुछ लोग हमसे बिछड़ गए कोई कांग्रेस मे तो कोई हिंदू महासभा मे गए । कोई चाहे जहा भी जाए लेकिन हम ज्योतिराव फुले के रास्ते से ही जाएँगे (संघर्षासाठि मुलनिवासी भारत 9 अप्रैल 2006) । राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने जीवन भर मूलनिवासी बहुजनो को ब्रामणवाद के चँगुल से बचाने और उन्हे जागरूक करने का कार्य किया । उनके कार्य से प्रभावित बंबई मे लाखो लोगो ने राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले को महात्मा की उपाधि दी ऐसे महान क्रांति के महानायक क्रांतिसुर्य राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले के महापरिनिर्वाण दिवस   (28  नवंबर 1890) पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

आखिर क्या चाहते थे बाबासाहब ?

जो लोग समझते है बाबासाहब के छायाचित्र लगाना, जगह जगह उनकी मुर्तिया प्रस्थापित करना, साल में तिन चार बार पूजा करना, जयंती उत्सव मनाना ही बाबासाहब का सम्मान है तो मैं समझाता हु की बाबासाहब के अविरत संघर्ष और कार्य का हमने बहुतही बेहूदा और घटिया मूल्याङ्कन किया है। जिस महापुरुषने अपने जीवन के आखरी क्षणों तक कहा की ' मेरे नाम की जय जयकार करने कीबजाई मेरे दृष्टी से जो महत्वपूर्ण कार्य है उसे अपने प्राणों से ज्यादामहत्व देकर पूरा करने का प्रयास करो' । और विडम्बना तो देखो की उसमहापुरुष के सम्पूर्ण जीवन कार्य तथा आन्दोलन को जोरदार नारेबाजी, रेलीया, जबरदस्त चन्दा वसूली, नशे में जयंती के अवसर पर थिरकते लोग, रंग गुलालऔर नाच गानों पर बेहताशा खर्च इस प्रकार की बातो मैं तब्दील किया जाताहै. और हमें लगता है हम बाबासाहब का सम्मान कर रहे है . और यह सब करते समय हमारी मानसिकता इतनी संकुचित हो गई हैकी हमे लगता है की जो लोग और जो संगठन ऐसा कर रहे है वो बाबासाहब कासम्मान कर रहे है .साथियों यह सब बाबासाहब और हमारे सभी महापुरुषों के आचरण के विरुद्ध है .हम ऐसा करके बाबासाहब के सपनो का भारत निर्माण नहीं कर सकते. खास करकेसमाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने तो ऐसा नहीं करना चाहिए क्योकि बाबासाहब नेबुद्धि जीवी वर्ग के निर्मिती को प्राथमिकता दी है. वे जानते थे कीबुद्धिजीवी वर्ग व्यवस्था परिवर्तन का आन्दोलन चला सकता है . तो क्याअनुसूचित जाती ,अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्य वर्ग सेनिर्मित बुद्धिजीवीवर्ग अपने निर्माताओ की इच्छा अनुरूप कार्यरत है ? इसकी समीक्षा करने केबाद पता चलता है की यह वर्ग ऐसे किसी कार्य मे सक्रिय रूप से भागीदारदिखाई नही देता । इतना ही नही, जिस समाज से यह वर्ग आया है , उस समाज कोभी यह उपेक्षित भाव से देखता है और उससे दूर रहता है । यह अनुभव अपनेजीवन काल के उत्तरार्ध मे बाबासाहब डाँ अंबेडकर को भी हुआ और उन्होने बड़ेही दुखी मन से 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलिला ग्राउंड मे कहा की "मुझेपढ़े लिखे लोगों ने धोखा दिया है, मै सोचता था की पढ़ लिखकर यह वर्ग अपनेसमाज की सेवा करेगा , मगर मै देख रहा हूँ की मेरे इर्द-गिर्द क्लर्को कीभीड़ इकट्ठा हुई है , जो अपना ही पेट पालने मे लगी हुई है ।" यह आहत भावनाइस बात का सबूत है की पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग अपने समाज से और उसकेस्नेहभाव से दूर दूर जा रहा है । यही वजह है की गाँवो मे रहने वाले लोगोके साथ अन्याय, अत्याचार और भेदभाव का व्यवहार बढ़ गया है । जिस कार्य के लिए डाँ बाबासाहब अंबेडकर ने इस वर्ग का निर्माण किया था उसकार्य मे यह वर्ग दिखाई नही देता। जिस वर्ग से नेतृत्व की अपेक्षा की गईथी , वह वर्ग सरकार का नौकर बनकर रह गया है , आधे अधूरे और कच्चे लोगो केहाथो मे आंदोलन की बागडोर छोड़ दी गई है । इसका नतीजा हम देखते है कीहमारे महापुरुषो का आंदोलन आज चलता हुआ नजर नही आता ।


इसलिए बुद्धिजीवीवर्ग को वही कार्य करना चाहिए जिसकी उसके निर्माताओ ने उनसे अपेक्षा कीथी . देशभर मैं गैरबराबरी की व्यवस्था चल रही है. जब तक उस व्यवस्था मैंपरिवर्तन नहीं होता तब तक अनु.जाती, अनु.जनजाति, पिछड़ा वर्ग औरअल्पसंख्य वर्ग के लोग व्यवस्था मैं पिसते रहेंगे, और उनके साथ हर तरह काभेदभाव होते रहेगा . इसीलिए बुद्धिजीवी वर्ग को व्यवस्था परिवर्तन के लिएसंगठित होना चाहिए , संगठित करना चाहिए और एक प्रभावी आन्दोलन बनानाचाहिए. आओं हम सब बाबासाहब डाँ अंबेडकर के जन्मदिन के शुभ अवसर पर उनके सपनो का भारत निर्माण करने का प्रण करते है .







कुलदीप वासनिक



मोब- ८७९६६३५०९३

मंगलवार, 13 मार्च 2012

राजा में मानव और मानव में राजा लोकराजा राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज : भाग १

महात्मा ज्योतिराव फुले से प्रेरणा लेकर ही राजश्री छत्रपति शाहू महाराज
ने पुरानी प्रशासनिक कौंसिल को भंग कर अपने प्रत्यक्ष निरीक्षण मे राज्य
का काम करने लगे । जनता को ब्रामण कर्मचारीयो के शोषण से बचाने के लिए
सबसे पहले यह आदेश जारी किया की आइंदा से सरकारी कर्मचारी गाँवो मे नकदी
पैसे देकर वस्तुए खरीदेँगे और रसिद प्रस्तुत करेंगे । अदालतो के सारे
कर्मचारी तथा न्यायाधीश ब्रामण हुआ करते थे । उनके शोषन से किसानो को को
बचाने के लिए दूसरा आदेश जारी किया की अदालत किसानो के पशुओं की नीलामी
नही करेगी । उन्होने शुद्रो, अतिशुद्रो, मुसलमानो सभी को खुलेआम उनसे
मिलने की इजाजत दी । राज्य मे अकाल तथा प्लेग जैसी आपदाओ के वक्त किसानो
के पशुओ की देखरेख करने की ज़िम्मेवारी राज्य ने स्वयं ली ।
सन 1901 मे छत्रपति शाहु महाराज ने ब्रामणो की सारी सुविधाए समाप्त कर दी
क्योकी ब्रामण मराठो की रस्मो को यह कहकर बिना नहाए ही संपन्न करते थे की
शुद्रो की रस्मो मे ब्रामणो को नहाने की जरूरत नही । ब्रामण नेता तिलक ने
कहा की मराठे नीची जाती के लोग है और अगर धार्मिक रस्मे कर भी लेंगे तो
ब्रामण नही बन जाएँगे । तिलक ने छत्रपति शाहु महाराज को गंभीर परिणाम
भुगतने की धमकी दी । शाहु महाराज उच्च शिक्षित थे । जुन 1902 मे केंब्रिज
विश्वविद्यालय ने उन्हे एल. एल. डी. की डिग्री प्रदान की थी । शाहु
महाराज तिलक जैसे ब्रामणो को उनकी औकाद दिखाने की क्षमता रखते थे ।तिलक
जैसे ब्रामणो की धमकियो से विचलित हुए बिना शाहू महाराज ने शुद्र छात्रो
के लिए छात्रावास बनाकर उसमे उनके रहने ,खाने ,पीने ,किताबो, कपड़ो की
निःशुल्क व्यवस्था की । ब्रामणो के विरोध की धज्जिया उडाकर शाहू महाराज
ने अपने राज्य की नौकरियो मे जाती , जनजाति , पिछड़ो के लिए 50% आरक्षण
उपलब्ध कराया ।
शाहु महाराज ने भास्कर विठोबा जाधव नामक मुम्बई विश्वविद्यालय के होनहार
छात्र को जिसने 1888 की मेट्रीक की बोर्ड परीक्षा मे प्रथम स्थान हासिल
किया था तथा जिसने अपने बीए व एमए की परीक्षा मे भी प्रथम स्थान हासिल
किया था को 1 जुलाई 1895 से राज्य के सहायक सारसुबा पद पर नियुक्त किया ।
तो ब्रामणो ने जाधव को इतने बड़े पद पर नियुक्त करने के निर्णय पर हाय
तौबा मचाई । राज्य के सारे ब्रामणवादी अखबार राजर्षी शाहू महाराज के
निर्णय के खिलाफ आग ऊगलने लगे । कथित समाजसुधारक ब्रामण रानडे तक ने शक
जताया की क्या सचमुच जाधव एक ब्रामण जैसा कुशल है ?
पंडे पुजारी ब्रामणो ने कहा की राज्य मे अपशकुन होने वाले है , अनर्थ
हो जाएगा ; महलो मे दुर्घटनाए होगी ताकी ब्रामण खुद ही भीतराघात कर उसे
दैवीक आपदा के आड़ मे छिपा सके और शाहु महाराज डरकर शुद्रोँ कि नियुक्तिया
रद्द कर दे । उनका निवारण करने के लिए जाप ताप इत्यादि करने का आग्रह
किया लेकिन शाहु महाराज ने ब्रामणो को कह दिया की जाप के बाद भी अगर कोई
दुर्घटनाए होती है तो जाप करने वाले ब्रामणो को जेल की हवा खानी होगी ।
यह सुनते ही जाप का आग्रह करने वाले ब्रामण खिसक गए । सन 1903 मे शाहु
महाराज ने मठ संपत्ति और शंकराचार्य की सभी ताकते और अधिकार वापस लेने का
आदेश जारी किया । का आदेश जारी कर दिया । तिलक और सभी ब्रामणो ने
अपनी पराजय को स्वीकार करते हुए शाहू महाराज के राजकाज मे सहयोग करने का
वादा करके अपनी सहुलतो को वापस बहाल करा लिया । लेकिन ब्रामणो के मन मे
शाहू महाराज से इतनी नफरत हो गई की ब्रामणोने शाहू महाराज की हत्या करने
की कोशिशे की पकड़े गए नंडुम नामक ब्रामण ने अदालत मे बयान दिया की किसी
ने उसे तीस रुपए देकर महाराज के सलाहकार फारस को गोली मारने और महाराज की
लड़की की शादी मे बम फेंकने को कहा था । यह योजना भले ही नाकाम हो गई फिर
भी कोल्हापुर मे कई स्थानो पर बम धमाके किए गए ।सन 1908 मे शाहु महाराज
के रास्ते मे बम रखा गया परंतु बग्गी देर से पहुचने के कारण बम किसी अन्य
टाँगे के नीचे फट गया .............

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

क्या भारत के मूलनिवासी वास्तव मे गुलाम है ?

किसी भी व्यक्ति और समूह को गुलाम कब कहा जाता है यह वास्तव मे महत्व
पुर्ण सवाल है ।कोई भी व्यक्ति या समूह जब पराजित हो जाता है, तब विजेता
लोग उसको गुलाम बना देते है ।मगर पराजित लोग इसका अपने ताकत के अनुरूप
विरोध करते है ।प्रारंभ मे यह होता है ,मगर धीरे धीरे जो लोग पराजित होते
है वह लोग अपना इतिहास और अपने तौर तरीके भूल जाते है ।इस तरह सेउनकी
पहचान समाप्त हो जाती है ।जैसे ही, उनकी पहचान समाप्त हो जाती हैऔर अपना
इतिहास और उसका गौरव भूल जाते है,तब इसका अहसास भी समाप्त हो जाता है
।जब गुलामो की अपनी पहचान समाप्तहो जाती है ,तब विजयी लोगो का अनुकरण और
अनुसरण पराजित लोग शुरू कर देते है ।जब यह अनुकरण और अनुसरण शुरू हो जाता
है तो पराजित लोगो का मूल अस्तित्व समाप्त हो जाता है । अपना मूल
अस्तित्व खोकर विजेताओ की परंपराओ का अनुसरण करके अपना अस्तित्व और पहचान
मिटाना शुरू कर देते है ।यही पर गुलामो की गुलामी का अहसास समाप्त हो
जाता है ।जब गुलाम को गुलामी का एहसास होना बंद हो जाता है उसी वक्त कोई
भी जाती या समूह वास्तव मे गुलाम बन जाता है । ऊपर उल्लेखित धारणा से अगर
देखा जाए तो यहा का मूलनिवासी वास्तव मे गुलाम है।भारत के अलावा दूसरे
देशो मे भी गुलाम बनाए गए है, मगर गुलामो की शिक्षा के अधिकारो से वंचित
नही किया गया । लेकिन भारत मे शिक्षा के अधिकारो से मूलनिवासी गुलामो को
वंचित कर दिया गया ।जिससे भारत का मूलनिवासी केवल गुलाम नही रहाबल्कि
पक्का गुलाम हुआ । हम इसे पक्का गुलाम इसलिए कहते है क्यो की मूलनिवासी
गुलाम लोग अपने गुलामी का गर्व और गौरव करते है ।गुलामी मे सुख और आनंद
का अनुभव करते है । विजेताओ की परंपराओ का यानी युरेशियन ब्रामणो की
परंपरा, धर्म, संस्कार, समाज व्यवस्था का केवल अनुकरण और अनुसरण नही करते
बल्कि गर्व और गौरव करते है ।युरेशियन ब्रामणो ने दिया हूआ यह नारा "गर्व
से कहो हम हिंदू है ।" इसका हम मूलनिवासी गर्व और गौरव से प्रतिध्वनित
करते है ।यही इस बात का सबूत है की हम गुलामी का गर्व और गौरव करते है
।इस स्थिति से मूलनिवासीयो को मुक्त करने की आवश्यकता है । मूलनिवासी यो
को किसने गुलाम बनाया यह बात सर्व विदित है की वर्ण व्यवस्था जाती
व्यवस्था और अस्पृश्याता युरेशियन ब्रामणो के बड़े हथियार है । इन हथियारो
का प्रयोग और उपयोग करके मूलनिवासीयो को पराजित किया गया और पराजित करने
के लिए कई साजिशे हथकंडे किए गए ।यह सब करने वाले लोग युरेशियन ब्रामण थे
।इस तरह से मूलनिवासीयो को गुलाम बनाने वाले लोग युरेशियन ब्रामण है ।जिन
लोगो के पास विचारधारा नही होती,जो लोग अपने दुश्मनो को ठीक ठीक नही
पहचानते ,अपने दोस्तो को ठीक नही पहचानते और जिनको इतिहास का सम्यक आकलन
नही होता, जिनके पास व्यवस्था परीवर्तण का शास्त्र और शक्ति नही होती और
उस उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग करने का ज्ञान और कुशलता नही होती वे लोग
जागरूक नही होते । इस तरह तरह से जो लोग जागरूक होते है वे अज्ञानी और
अजागरुक लोगो को अपनी जागिर बना लेते है अपनी संपत्ति मानना शुरूकरते है
।युरेशियन ब्रामणो ने यही किया और कर रहे है ।इसलिए युरेशियन ब्रामण
मूलनिवासियो के शत्रु है ।

आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा' , 'स्वामी समर्थ' और शेँगाव के 'गजानन महाराज' ?

ता 19 जुलै 1994 को संपादक दिपक तिलक ईनका सह्याद्री अंक मे दुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है यह लेख प्रसिद्ध हूआ था लेखक अरुण ताम्हणकर ईनोने रहस्योद्घाटन करते हूए एक अज्ञात साधु का आधार लिया है । ऊनका ये लेख दै मुलनिवासी नायक के पास ऊपलब्ध है । ताम्हणकर ईस लेख मेँ जो कहते है ऊसका सारांष तो यही कहता है सदाशिवराव पेशवा ही स्वामी समर्थ हैतात्या टोपे ये शेगांव के गजानन महाराज हैदुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है । लेखक ताम्हनकर को बाबा के प्रकटिकरण मान्य नही वे कहते है कि ये बाबा लोग अचानक प्रकट हूए कैसे? साधारण आदमी के तरह माँ के पेट से जनम क्यो नही लिया? स्वजाति के बारमे अपनने ऊलटा सिधा बोल दिया ईसके लिए ताम्हणकर ने अपना मुँह बंद किया तो कभी खोला ही नही । ब्रामणो ने स्वामी समर्थ महाराज ईनके कई जगह मठ स्थापण किये अक्कलकोट मंगलवेढा चिपलुण अहमदनगर कल्याण दादर गिरगांव (महाराष्ट्र) ईन प्रमुख संस्थानो (मठ) मे स्वामी का प्रकट दिन हर साल मनाया जाता है । और हर मठो मे खालि सिंहासन है । क्यो कि सिर्फ ब्रामण ही जानते है की स्वामी समर्थ ये पेशवा सदाशिवरावही है । ईस प्रकरण का शोध लेने के लिए प्रत्यक्ष कुछ मठो मेँ भी जाकर देखा है । यह लेख किसीकी भावनाओ को ठेच पहूचाने के लिए नही लिखा गया है । सामान्य जनता को ब्रामणी षडयंत्र समजे, गुप्त बाते समजकर अंधश्रद्धा खात्मा हो यही हेतु है ।पानिपत कि तीसरी लडाईता 13 फरवरी 1760 को पटदुर यहा विश्वासराव पेशवा ईनके साथ सदाशिवराव पेशवा को मिशन पर भेजने का निर्णय लिया गया । ग्वालियर होकर ता 30 मई 1760 को तोफ, रसद, बारुद, घोडदल कुछ औरते लेकर सव्वालाख फौज निकली । अहमदशाह अब्दाली चौकन्ना हो गया वह कुशल सेनापती था ऊपर से पेशवाओ मे चालाकी का अभाव था सदाशिवराव ये कुत्सित जिद्दि स्वभाव के थे (ऐसा ब्रामण कादंबरीकारो ने लिख कर रखा है) ता14 जनवरी 1760 को पानिपत यहा लडाई हूई ।विश्वाराव ईनकि गोलि लगने से म्रुत्यु हो जाति है तो सदाशिवराव बच्चो कि तरह रोने लगते है ईससे सैनिको का मनोबल कम होता है । सदाशिवराव को बिना लडखडाए मैदान खडा रहना आवश्यक था । पर अचानक सदाशिवराव मैदान मे से गायब हो गये(म .यु. भा. ईतिहास पेज क्र 112) । ईतिहास मे पाणिपत कि लडाई का वर्णन सव्वा लाख चुडिया तुट गई ऐसा किया गया है । स्वामी समर्थ अचानक ऊसी समय 1760/61 मंगलवेढा (महाराष्ट्र) को प्रकट हूए स्वामी समर्थ के प्रकटिकरण से पाणिपत कि लडाई का घटनाक्रम जुडता है ।पहले तो मंगलवेढा गांव के लोग ऊन्हे नग्न मतिमंद पागल व्यक्ती समजते थे । कुछ सालो में ही ईस तरुण नग्न मनुष्य का दिगंबर बाबा हो गया ।(गांधिजी भि सव्वालाख पट चालाक थे ऊनोने प्राप्त किया हूआ महात्मापन एकनंबर माडल है ।)स्वामि समर्थ का चरित्रई स 1818 को ब्रामण गोपलबुवा केलकर ने स्वामी कि पहलि बखर(Historical document) लिखि । गोपालबुवा ये स्वामी के बहुतसी गुप्त बाते जानने वाले शिष्य थे । ऊसके बाद ता 09 मई 1975 को रामचंद्र चिंतामण ने बखर का पुन:लेखन किया । अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक राजाधिराज स्वामी समर्थ महाराज ईनका जनम कहा हुआ?, वो छोटे के बडे कहा हुए ? ऊनके मातापिता कौन ? ऊनकी जाति कोनसी ? ईनमसे कोई भि बातो का पता नही चलता ऐसा बखर मे लिखा है । स्वामि मंगलवेढा मे 12 साल रहे । गांव के लोग ऊनको मतिमंद मनुष्य समजते थे । बसप्पा तेलि के घर मे रहने वाला यह नग्न व्यक्ती सिंदुर लगाए हूए पत्थरो पर पेशाब करता था ।स्मशान मे कबरो पर संडास करता था ।बसप्पा तेलि के घर के चुल्हे मे संडास करता ये सब स्वामी के लिला थे, वे अवतारी पुरुष थे ऐसा बखर कहती है (अंग्रेजो को कुछ ब्रामण साधु सन्यासीयो के जिवन चरीत्र के सबुत मिले एक जानकारी हमारे पढने मे आयी के एक साधु अपने अनुयाईयो को अपनी संडास खाने देता और ऊसके बाद ही ऊसे अपना चेला बनाता )। परंतु बसप्पा कि पत्नी मात्र अपना पती कहासे ईस मतिमंद पगले के पिछे लग गया ईसके लिए दुखी थी । रोजि रोटी करके पेठ भरनेवाला यह तेलि परिवार बहुत ही गरीब मे जी रहा था । अचानक बसप्पा के परिवार को कहासे तो सोने की खान मील गयी और उनकी गरीबी हमेशा के लिए नष्ट हो गयी । असलियत मे स्वामी को मिलने के लिए मालोजिराव पेशवा मंगलवेढा आते थे ।ऊन्होने स्वामी का महिने का खर्चा बसप्पा को देने की व्यवस्थ लगा रखी थी । स्वामी कभी कभी बसप्पा के परिवारवालो को घर से बाहर निकाल देते और दरवाजे के सामने लाठी लेकर बैठते ।पेशवाओसे महिना अर्थसहाय्य मिलने के बाद गणपत चोलप्पा नाम का नौकर स्वामी की सेवा के लिए ऊपस्थित हो गया ।मै टोली तयार करता हूस्वामी मंगलवेढा मे रहते समय ऊन्हे जबभी पागलपन का झटका आता तो ऊने शांत करने के लिए चेले गांव कि मतिमंद स्त्रि सरस्वती सुनारीन को लाते ।यह मतिमंद स्त्रि लाठी और बगल मेँ फटे कपडो का गठ्ठा लेकर चेलो के पिछे भागती एक चेला कहता 'ज्ञानबा तुकारम' अर्थात दुसरा कहता 'पगली का क्या काम' यह शरारत देख स्वामी जोरजोरसे हसते इतना कि ऊनका पलंग भि हिलता ।12 साल रहने के बाद भी स्थीती नही सुधारी । अक्कलकोट मे चिंतोपंत टोल के यहासे एरंडी की सुखी लकडियो के हतेलिभर तुकडे करते । ऊनमे मिट्टि भरते और फिर पाँच पाँच सात सात तुकडे सैनिक बंदुक जैसे रखते है उसि प्रकार लाईन से रखते । ये ऊपक्रम कई महीने चलता किसिने अगर पुछा तो स्वामी कहते मै टोली (पलटन) तयार करता हू ।ऊसके बाद स्वामी अक्कलकोट मे दुसरा खेल खेलने लगे । अक्कलकोट मे लक्ष्मी नाम कि ऐक तोफ है वहा जाकर तोफ के मुंह मे सिर डाल कर घंटो बैठते ।बुधावारपेठ मे बडबडाते 'अब हिंदु का कुछ रहा नही घोडा गया हाति गया पालखि गया सब कुछ गया' और बिचमेही चिल्लाते सरबत्ती लगाव! यह सब पाणिपत की हार का परिणाम तो नही ? आज तक सदाशिवपेठी लेखक पेशवाओ के गुण गाते नही थके । स्वामी , राऊ ईन कादंबरीयो मे 'तोतया' कहके ईसि पागलपण का वर्णन किया है ।जो पेशवा गिरफ्तार हुवा क्या वो पागल था ? क्या वो पागलपण का नाटक करता था ? ऐसा प्रश्न कादंबरी पढने वालो को नही पडा ।


स्वामी एक जगह कभी बैठते नही थे । दिन मे सात आठ बार वो जगह बदलते ईसिलीए ऊन्हे चंचल भारती भी कहते । अक्कलकोट मे स्वामी के स्वतंत्र आश्रम की व्यवस्था की गयी थी । ईस काम मे राणी साहब बहूत ज्यादा ध्यान देती । ईस प्रकार ब्रामणी खोपडी ने मतिमंद सदाशिवराव का स्वामी समर्थ महाराज किया था ।स्वामी के दर्शन से हमारे तूम्हारे प्रश्न छुटते है , भाकड गाय दुध देती है , स्त्रियो को बच्चे होते है । ऐसा प्रचार अडोस पडोस के गांवो मे किया जाता प्रचार मे ब्रामण स्त्रियो का भी सहभाग रहता । पेशवाओ के दफ्तर के दस्तावेजो के प्रमाण से पता चलता है की ब्रम्हेंद्रस्वामी धावडशिकर ये स्वामी के भेस मे शाहूकार और बद्चलन आचरण के थे । ब्रंम्हेँद्रस्वामी के पास लगभग 20 स्त्रि दासिया थी । जहा जहा स्वामी रहते वहा वहा स्त्रि दासिया जाती । ऊनमेँसे कुछ प्रसिद्ध दासियो के नाम ईस प्रकार से है सजनी, गंगी, सोनी, लक्ष्मी, मानकी, नागी, राधी, गोदी, नथी, कृष्णी, यशोदा, नयनी, आनंदी, ई . ये सभी पेशवाओ कि तरफ से नजराणा था ऐसा जानकारो का कहना है । ईतनाही नही जिनको पुत्रप्राप्ती नही होती थी ऊनको स्वामी के पास लाया जाता और ऊनको स्वामी का विशिष्ट प्रसाद दिया जाता । कुछ रातो को तो स्वामी के मठो से अनैतिक मार्ग से पुत्रप्राप्ती की जाती । ईस सारे खेल पर पेशवाओ के जबरदस्ती कि वजह से परदा पड जाता । यही रित स्वामी समर्थ कि थी ऐसा दस्तावेजो के आधार पर प्रमाणीत किया जा सकता है ।
' मुंगी पैठण की विठाबाई '
स्वामी के दर्शन को भक्त आने लगे आश्रम मे गाय, बकरी, कुत्ते, बिल्लियो की संख्या बढने लगी । केशर कस्तुरी के मिश्रण करके पेशवाओ की तरह सीर पर गंध लगाया जाता स्वामी कभी दाढी रखते कभी निकालते वे लहरी स्वभाव के थे ।स्त्रीयोँ के सत्र मेँ पुरुषो को प्रवेश नही था । स्वामी को कभी कभी साडी चोली पहनाकर बिठाया जाता पर स्वामी अधिकतर लंगोठ पहनकर बैठना पसंद करते । मुंगी पैठणकी विठाबाई ये भि स्वामी की दासी थी । एकबार ऊसने चोलप्पा गणपत को साथ मेँ लेकर पंढरपुर जाने का विचार किया । स्वामी को ये समजने के बाद स्वामी ने सबके सामने उसको पुछा की क्या ? अब तक विठोबा का लिंग पकडने नही गयी ? यह सुनकर वहा ईकठ्ठा हूई सभी औरतो ने शर्म से गर्दन निचे कर दी (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र. 46)।
" सुंदराबाई प्रकरण "
दिन ब दीन अक्कलकोट मे भक्तो कि संख्या बढती गयी वैसे संस्थान मे पैसो की आमदनी भी बडी । उसी दौरान सुंदराबाई नाम की तरुण विधवा स्वामी की दासी बन गयी ।वो गणपत चोलप्पा बालप्पा ईनको आदेश देने लगी । तो स्वामी ऊसको कहते " ऐ रांड नौकरणी ये क्या तेरे घर के नौकर है ? "। स्वामी खाना खिलाना नहाना दर्शन के लिए तयार करना ये सभी काम वो करती ।ऊसने स्वामी को ऊठने को कहा तो वो उठते सोने को कहा तो सोते ।ईतनाही नही भक्त दर्शन के वक्त सुंदरा स्वामी को पत्नी कि तरह चिपककर बेठने लगी । संस्थान का अनगिनत पैसा सुंदराबाई हडप करने लगी ।तक्रार करने पर शिष्यो ने ऊसे जेल मे डाल दिया ।
स्वामी अवतार थे पर स्त्रिलंपट थे आखिर मामला पोलीसो तक पहूचना जरुरी था , स्वामी समर्थ के अवतारवाद पर प्रश्नचिन्ह खुद स्वामी ने ही लगाया ।ये अवतार न होकर पाखंड था ये सिद्ध हो चुका है ।
स्वामी की बखर मे 264 प्रकरण है वह सभी देणा शक्य नही । एक बार कर्वे नाम का ब्राम्हण स्वामी को मिलने आया कर्वे ईनकी जवान लडकी बिघड गयी थी । स्वामी ने कहा " होली किजिए " कर्वे को बडा ही धक्का पहूचा तो ऊनोने पुछा आपकी जाती कोनसी ? तो स्वामी ने जवाब दिया " यजुर्वेदी - ब्रामण, गोत्र- कश्यप , रास - मिन " (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र 58 ) । ई स 1800 को स्वामी की मृत्यु हो गयी स्वामी तब वे सत्तर साल के थे । ई स 1800 मे चैत्र शुद्ध पुर्णीमा को ऊनका मृत्यु हूआ स्वामी की प्रेतयात्रा को हाती सचाये हुए घोडे तोफदार जरिपटका के पेशवे निषाण बारुदकाम करने वाले ऐसा माहौल था । स्वामी पर भरजरी पोशाख व अलंकार चढाए गये । स्वामि को आखिर मेँ सुगंधी पेटी मे बंद किया गया ऐसा बखर मे लिखा है .


परंतु 14 जनवरी 1761 को मैदान से भागे हुए सदाशिवराव का अंत हुआ था ।स्वामी मंगलवेढा मे रहते समय पेशवाऔ की तरफ से उनको मिलने वाला खर्चा कभी बंद नही किया गया स्वामी ने एक बार मालोजिराव के गाल पर थप्पड लगाई ऊसका कारण यही था कि सदाशिवराव ही स्वामी समर्थ थे । आगे यही प्रयोग तात्या टोपे और नानासाहब पेशवा के साथ किया गया । क्योकी ब्रामण मतिमंद पागल आदमी को स्वामी समर्थ बना सकते है तो सिर से पैरो तक ठिक ठाक दिखने वाले तात्या टोपे को गजानन महाराज और नानासाहब पेशवा को शिर्डी के साईबाबा क्यो नही बना सकते ?
" तात्या टोपे ही है गजानन महाराज "
1818 को भिमा कोरेगाव पेशवाओ की हार हुई ।भारत मे अंग्रेजो कि सत्ता प्रस्थापित हूई । अंग्रेजो के विरुध कयी लड़ाईया हुई उनमेसे 1857 की लड़ाई एक संगठित प्रयास था । परंतु तात्या टोपे, नानासहब पेशवा , लक्ष्मीबाई ईनके नेतृत्व मे किया गया यह प्रयास असफल साबित हुआ । हारने के बाद ये लोग भूमिगत हो गए । नानासाहब पेशवा तात्या टोपे रंगो बापुजी ये लोग साधु पंडीतो का भेस धारण कर भटक रहे थे ('रंगो बापुजी' लेखक-प्रबोधनकार ठाकरे-(शिवसेना के बाल ठाकरे के पिता), पान क्र 270) कई लोगो को फासी दि गयी पर परंतु ऊनके रिश्तेदारो ऊनकी लाश पहचान से ईनकार कर दिया । करीब एक साल पहले कि बात है दैनिक जागरण मे एक व्रुत्त प्रकाशीत हूआ है , तात्या टोपे को फासी दि गई पर वो कोई दुसरा ही था , ऐसी खबर है । लेखक ताम्हणकर का कहना है की तात्या टोपे का वर्णन शेगांव के गजानन महाराज से मिलता जुलता है ,शेगांव मे प्रकट होने वाले गजान महाराज तात्या टोपे ही है ऐसा उनका स्पष्ट कहना है ।साईबाबा और गजानन महाराज एकही वक्त मे होके गए । दोनो को चरित् मे दोनो की कभी मुलाकात होने की खबर नही मिलती ।परंतु जब गजानन महाराज का मृत्यु हुआ तो इधर साईबाबा ' मेरा गया रे ' कहकर दुःख व्यक्त कर रहे थे । असल मे ये लोग संत महापुरुष थे ही नही ब्रामणो ने बनाए हुए बेहरुपीये थे । सुख दुःख के भी आगे निकल चुके संतो से तो ये अपेक्षीत नही की वे अपना सेनापति मरने का दुःख जाहिर करे पर इसका दुःख नानासाहब को हुआ । ' सांईबाबा मतलब दुसरा नानासाहब पेशवा ' !
साई यह नाम इसा से लिया गया है ।
केसरी प्रकाशन ने प्रकाशित किया गया ' पेशवा घराणो का ईतिहास ' ईस किताब मे लेखक प्र ग ओक कहते है दुसरे बाजिराव ने 7 जुन 1827 को गोविंद माधवराव भट ईस लडके को गोद लिया । उसकी जनतारिख 6 दिसंबर 1824 ऐसी है । मतलब 1857 के युद्ध मे दुसरे नानासाह पेशवा 32 साल के थे ।
नानासाहब पेशवा को संस्कृत , पर्शियन(ईराणी) , ऊर्दू ईन भाषाओ का ज्ञान था । नानासाहब पेशवा हमेशा किनरवापी कुर्ता डालते । शिर्डी के साईबाबा का द्वारकामाई चावडी के पास का फोटो सबके परिचय की है ।
28 फरवरी 1856 को अंग्रेजो ने नानासाहब पेशवा को पकडने के लिए इनाम जाहिर किया था । रंग गेहुआ , बडी आंखे , छह फिट दो इंच लंबाई, सिधा नाक, साथ मे तुटे कान का नोकर ऐसा भेस जाहिर किया गया था । नानासाहब समझ कर दूसरे किसीको ही फासी दी गई थी । असल मे नानासाहब कबके फरार हो चुके थे । साई यह गांव मै जहा पे पढता हू ऊधर रायगड जिले (महाराष्ट्र) के चिरनेर के पास है । परंतु साई यह नाम ब्रामणो ने येशु ख्रिस्त के ईसा का उलटा लिया है ।
ब्रामण मतिमंद पागल सदाशिवराव को स्वामी बना सकते है तो नानासाहब पेशवा को शिर्डी का साईबाबा भि बना सकते है ।ईन स्वामी बाबा महाराजाओ को लोगो को गाली देने कि आदत थी । और स्वामी समर्थ और साईबाबा ईनकी काठी एक जैसी ही है । और काठि पर हात रखने का तरीका भी एक जैसा है यह विशेष।
ओर दुसरी विशेषता तो यह है की इनको कई तरह की गंदी आदते भी थी उनमे से एक गजानन महाराज की गांजा पिते हूए एक तसविर बहुत लोकप्रिय है ।अय्याशीयो से ही गांजा पीने की आदत लगती है ।
मुलनिवासी बहूजनो के संत मोह, माया, संपत्ती से दुर रहकर लोगो को जिने का मार्ग दिखाते । ' व्रत काया कल्पो से पुत्र होती, तो क्यो करने लागे पती ' । यह भावना विज्ञानवादी विचारधारा का ऊदाहरण है । चिलिमधारी गांजाधारी फोटो का मानसशास्त्रिय परिणाम छोटे बच्चो तथा समाज पर क्या होता होगा ?।वर्तमान मे जो काला पैसा कमाते है , भाईगिरी , चोरी खुन करके पैसा कमाते है , बडे बडे गुंडो के आश्रय से राजनिती मे आते है । 'चरीत्रहीन काम करके मै ही चरीत्रवान ' ईसलिए दर्शन के लिए बिना किसी लाईन मे लगके दर्शन के लिए ज्यादा का पैसा देकर शार्टकट दर्शन लेते है । अमिताभ बच्चन का दर्शन घोटाला तो बडा ही फेमस है । बाल ठाकरे ने भि साईबाबा को क्या क्या नही दिया था यह प्रकरण भि बडा ही फेमस हूआ था । काँग्रेस, राष्ट्रवादी , बिजेपी के नेताओ ने पुंजिपतियो ने कितना पैसा ईन मंदिरो को दिया ईसका कोई हिसाब है ? । यह राजस्व प्राप्त करने का नया तरीका है क्या ? भारत को आजादी मिलने के बाद संस्थानिको के संस्थान विलीन किए गए बदले मे उनको तनख्वा देने कि व्यवस्था कि गई कुछ दिनो बाद भारत सरकार ने तनख्वा बंद किया । ऊसके बाद संस्थाने राजापद इतिहासगत हो गई । परंतु आजादी के बाद अस्तित्व बनाए रखने वाली ब्रामणी व्यवस्था की संस्थाने गब्बर होती जा रही है । इन संस्थानो के आश्रय से अंदर बैठने वाले बुवा , बापु , बाप्या , स्वामी, दादा, नाना-महाराज, सद्गुरू इनकी कृपा से हमारे तुम्हारे प्रश्न चुटकी बजाते ही छुट जाएंगे ऐसा प्रचार यह ब्रामण और ऊनके दलाल हमेशा करते रहते है । धर्म , भक्ती, सेवा, श्रद्धा, अध्यात्म, ब्रामणी कर्मकांड ईनको आकर्षित होकर खुद ही ब्रामणी संस्थानो मे प्रवेश करते हैँ । नसिब पर विश्वास रखकर जिने लगते है । दैववादी बन जाते है । ब्रामणी कर्मकांडो के जाल मे फस चुके लोगो का कर्मवाद पर से विश्र्वास कम होते जाता है ओर वो ब्रामणो का मानसिक गुलाम बन जाता है। ईनमे अशिक्षित शिक्षितो के साथ अमिर गरीब सभि का जमाव रहता है ।
विशेषता तो यह है की मानसिक विकलांग लोग खुद को ब्रामणी व्यवस्था के गुलाम कभी नही समझते । ईसकी कल्पना तक नही करते ।


गुलामी की बेडीया तोडने का काम तो दुर ही ।ईन संस्थानो मे श्रद्धा के नाम पर लोगो से पैसा निकालने की योजनाए बनाई जाती है ।काकड आरती, महाआरती ,पालखी , ऊत्सव ,अभिषेक ,दर्शन ऊत्सव ,बेडिया, व्रत, मृतआत्माओ को खुश करना, चुटकी बजाते अमिर होना ,गुप्तधन, दिर्घायुष्य माला ,होम हवन ईन सब के द्वारा वो आपके जेब मे हात डालते हैं। इसतरह करोड़ो रुपयो का निधि रोज के रोज संस्थानो की दानपेटीयो मे झरने समान गिरते रहेगा ऐसी ब्रामणी षडयंत्रकारी योजना है । भारत के वित्तिय बजट से दस गुणा ज्यादा रकम मंदिरो मे हर साल जमा होती है, वो कहा जाती है । जहा पे भुखमरी से लोग मर जाते है , किसान आत्महत्या करते है , वही पे होम हवन करके लाखो रुपयो का दूध , दही , घी ,अनाज जलाया जाता है । यही इस देश की दुविधा है ।
जिन पेशवा ब्रामणो ने छत्रपति शिवाजी महाराज को जहर देकर मारा वही ब्रामण पेशवा अर्थात साईबाबा, गजानन महाराज, स्वामी समर्थ हमारे प्रेरणास्त्रोत कैसे हो सकते है ? जिन पेशवा ब्रामणो ने अछुतो के गले मे मटकी बाँधकर उनका थुकना तक पाप होता है ऐसा माना , उनके पैरो के निशान भी जमीन पर नही दिखने चाहिए इसके लिए उनके कमर को झाडु लगाया , ऐसे लोगो को हम अपना प्रेरणास्त्रोत कैसे मान सकते है ? फुले , शाहू , आंबेडकर ईनोने जो 108 साल जो क्रांतीकारी संघर्ष किया , जिससे गले की मटकी दूर होके उसके जगह टाई आ गई । शरीर पर कोट, सुट अच्छे कपड़े आ गए । पैरो मे जूते आ गए । जिन ब्रामणो ने ओबिसी को शुद्र कहा आज लोकतंत्र मे वही ब्रामण राजा बने हुए है ।
मुलनिवासी बहूजनो ने अपने महापुरूषो को प्रेरणास्थान मानना चाहीए । अपने बाप को ही बाप मानना चाहीए ।
पेशवा ये विदेशी युरेशियन ब्रामण है । वे अंग्रेजो से झगडते वक्त हार गए और भाग गए अंग्रेज पकड़ेंगे इस डर से ईन लोगो ने दूसरा मार्ग अपनाया वो मतलब साधु , स्वामी बनना । शिर्डी के साईबाबा - दुसरा नानासाहब पेशवा , स्वामी समर्थ -सदाशिवराव पेशवा , गजानन महाराज - तात्या टोपे ये सभी पेशवा ब्रामण है यह इतिहास से सिद्ध हो चुका है ।
इन संस्थानो के मेडिकल इंजिनिअरींग काँलेजेस है । यहा पे ब्रामणो के बच्चे पढते है और बाद पास होने के बाद इन विध्यार्थीयो से दो साल के लिए पुर्णकालिन कार्यकर्ता बनाकर काम करवाया जाता है ।आगे यही विध्यार्थी ब्रामणी व्यवस्था के कट्टर समर्थक कार्यकर्ता बनकर ब्रामणी व्यवस्था का मेंटेनन्स करने का काम करते है ।

यह लेख मराठी दै मुलनिवासी नायक मे आया हूआ है ।पाठको कि निरंतर मांग के कारण ईसे बार बार प्रकाशित किया गया ।दै मुलनिवासी नायक ने ईन तिनो ब्रामणो को नंगा किया तबसे कुछ महाराष्ट्र के ब्रामणी चँनलो ने अनैतिक टिवी सिरिअल्स शुरु कीये । महाराष्ट्र मेँ तो यह लेख गांव गांव मे पहूच चुका है । ईसिलिए पुरे देशभर के मुलनिवासी साथीयो को जाग्रत करने के लिए ईसका हिंदी अनुवाद किया हू । ईसको ध्यान मे रखते हूए सभि मुलनिवासी साथियो से विनती है की ईसे ज्यादा से ज्यादा मुलनिवासी साथियो के साथ शेअर करे और हो सके तो ईसकी प्रिँट निकाल कर लोगो मे ईसकी प्रतिया बाट सकते है । जल्द ही ईस पर मुलनिवासी पब्लिकेशन ट्रस्ट कि तरफ से एक शोध पुर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने वाला है । जय गुरु रविदासजी, जय जिजाऊ , जय शिवराय, जय भिम , जय मुलनिवासी !
लेखक ; प्रो . विलास खरात ,
अनुवाद ; कुलदीप वासनिक

एकबार शाहू महाराज ने कहा .....

सुनो ! केलवकर हुआ यूँ कि मैं एकबार सतारा गया था । हमारे लिए ही भोजन का कार्यक्रम चल रहा था । भोजन ब्राह्मणी पद्धति का था । ब्राह्मण आचारी भोजन तैयार कर रहे थे । खाने का समय हो चला था । स्नान कर मैं यह देखने के लिए घूमने लगा कि भोजन की तैयारी कहाँ तक पहुंची है । बहुत सारे हंडे थे । उनके बीच अंतर भी बहुत था । एक नंग-धड़ंग आचारी ब्राह्मण हाथ में बिल्ली लेकर इधर -उधर घूम रहा था । उसने मुझे देखा व बोला , “यहाँ घूमने नहीं दिया जाएगा , आपके छूने से सारा गड़बड़ -घोटाला हो जाएगा। इन शब्दों के कान में पड़ते ही मेरा कलेजा मुंह को आ लगा । उस बिल्ली की अपेक्षा मेरा दर्जा निम्न है ? मैं स्वयं से यह प्रश्न पुछने लगा । छत्रपति होते हुये भी जहां मेरा ऐसा अपमान होता हो वहाँ अस्पृष्यों का कितना अपमान होता होगा ? इसीलिए मुझे लगता है कि महार बच्चों को पास लेकर खाना खाऊँ । ऐसे महान ,संवेदनशील व मानवतावादी राजा का वर्णन करते समय शब्द कम पड़ जाते हैं । इन यूरेशियन ब्राह्मणो को राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज का ,छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज का ,कोल्हापुर रियासत के मालिक का ,मराठों के प्रतिनिधि का स्पर्श अपवित्र लगता था लेकिन बिल्ली जैसे प्राणी का स्पर्श अपवित्र नहीं लगता था । इसका मतलब वह यूरेशियन ब्राह्मण राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज की अपेक्षा बिल्ली को पवित्र मानता था तथा महाराज को अपवित्र मानता था । धन्य हैं वे यूरेशियन ब्राह्मण और धन्य है उनकी वर्ण-व्यवस्था व अस्पृश्यता । और धन्य है आज के यूरेशियन ब्राह्मण जो उपरोक्त सभी बातों का समर्थन करते हैं ।

………………………माणगाँव परिषद के बाद नागपुर में अखिल भारतीय बहिष्कृत समाज की परिषद 30 मई 1920 को पुनः दोनों महापुरुष इकट्ठा हुये । परिषद के अध्यक्ष राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज थे । अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होने कहा किसी को अस्पृश्य कहना निंदनीय है । आप अस्पृश्य नहीं हैं । आपको अस्पृश्य मानने वाले सभी लोगों की अपेक्षा आप अधिक बुद्धिमान ,अधिक पराक्रमी ,अधिक सुविचारी व अधिक त्यागी हैं व भारत के एक घटक हैं । मैं आपको अस्पृश्य नहीं मानता । हम सभी एक जैसे एक दूसरे के भाई-बंधु हैं । निश्चित ही हमारे अधिकार भी एक हैं । भाषण के अंत में उन्होने कहा, “आपने मुझे अपना माना है । अंतिम समय तक यह प्रेम बनाये रखें ।कितना भी कष्ट हो ,त्रास हो उसकी फिक्र न कर मैं आपकी उन्नति के महान कार्य में शामिल रहूँगा