बुधवार, 28 नवंबर 2012

महानायक क्रांतिसुर्य राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले के महापरिनिर्वाण दिवस (28 नवंबर 1890) पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन।

1848 मे ही राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रामणवाद के मजबूत किले मे सुरंग लगाकर उसे जर्जर करने का काम किया तब उनकी उम्र केवल 21 साल थी । और आज राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले हम सभी मूलनिवासी बहुजनो के प्रेरणास्त्रोत है । परंतु जब वे 21 साल के थे तो उन्हे भी प्रेरणा की जरूरत थी और वो प्रेरणा उन्होने कुलवाडीभुषण बहुजनप्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज से ली । राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले पुना से रायगड आए और रायगड किले पर कुलवाडीभुषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि ढुंढ कर उस श्रद्धा सुमन अर्पीत कर सबसे पहले सार्वजनिक शिवजयंती उत्सव की शुरुवात की । राष्ट्रपिता फुले कहते है की जब वे छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि पर श्रद्धा सुमन अर्पण कर रहे थे तब नीचे के गाँव से एक जोशी ब्रामण आया और कहने लगा की मै यहा ग्राम जोशी होते हुए भी मुझे दान दक्षिणा पूछे बगैर तुने कुणबी (कुर्मी) शिवाजी को भगवान बना दिया ? जो शुद्रो का राजा था । और उसने छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि पर लात मार कर वे सारे फूल फेंक दिए । राष्ट्रपिता फूले कहते है की तब तो उन्हे इतना गुस्सा आया की उस ग्राम जोशी को पटक दे । परंतु उन्होने संयम रखा और कुलवाडी भुषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज पर मराठी मे पहला पोवाळा (गीत) लिखा । और दूसरा गीत लिखा मोहम्मद पैगंबर साहब पर । डाँ बाबासाहब अंबेडकर के अनुसार उन्हे मराठी, अंग्रेजी, उर्दु ,कन्नड, मद्रासी तथा गुजराती ऐसी छह भाषाए आती थी । राष्ट्रपिता महात्मा फूले ने तर्क पर आधारित 'सार्वजनिक सत्य धर्म ' विकसित किया (Dr Ambedkar vol 19, page 502)। ब्रामण शुद्रो को अपने मतलब परस्त ग्रंथो से हजारो सालो से नीच मानकर उन्हे धोखे से लुटते रहे इसलिए शुद्रो को उनके वास्तविक अधिकारो से अवगत कराने तथा ब्रामणो कि गुलामगीरी से मुक्त कराने राष्ट्रपिता महात्मा फूले ने 24 सितंबर 1873 को सत्य शोधक समाज की स्थापना की । उनका आग्रह था की प्रत्येक बहुजन ने अपनी सभी सामाजिक विधियाँ किसी भी पुजारी के बगैर खुद ही करनी चाहिए ताकि शोषक पुजारी वर्ग विकसित ही न हो सके । सत्यशोधको कि शालाओ मे लोगो को सिखाया जाता था की शादी जन्म मृत्यु ई सामाजिक विधियों को बिना किसी अंधविश्वास से कैसे अंजाम देना चाहिए । 1914 मे सत्यशोधकोने स्वयं पुरोहित तथा घरका पुरोहित नामक किताबे प्रकाशित की (गेल आँमव्हेट page 84, 147,152) । राष्ट्रपिता महात्मा फूले के अनुसार आर्य ब्रामण अपनी शोषक वृत्ती को छोड़ना ही नही चाहता इसलिए हर बात मे खुराफते करते रहता है इस दुनिया मे सबको प्रिय ऐसा क्यो कोई ब्रामण है ? इसलिए हमे ब्रामणो की संगति नही करनी चाहिए क्योकी उनका स्वार्थ आते ही अंतत: वे शुद्रो को धोखा देते है (महात्मा फुले समग्र लिखित साहित्य page 467,470) । राष्ट्रपिता महात्मा फूले के अनुसार शुद्र बहुजनो ने आर्य ब्रामणो को दान मे जुते और लाठिया देनी चाहिए । शुद्र अगर अपने मानवी हकोँ से वाफिक हो जाए तब इन आर्य भटो को को कौन बचाएगा? इसलिए आर्य भटो ने अपने दुष्कार्य छोड़ देना चाहिए तब भविष्य मे उनकी संतानो को कोई डर नही रहेगा (म. फुले समग्र लिखित साहित्य page 478,489) ।राष्ट्रपिताफूले कहते है की शुरू मे मेरे सहकारी ब्रामण थे परंतु जब मै विध्यार्थीयोँके सामने ब्रामणो के पुर्खो कि धोखेबाजी उजागर कर रहा था तो ब्रामणो मे और मुझमे झगड़े होने लगे और बाद मे वे सारे मुझे छोड़ कर चले गए । इसका मतलब है की ब्रामण हमे अक्षरज्ञान तो देना चाहता है पढ़ लिख कर हम ब्रामणो के समर्थन मे बोलने वाले पोपट बन जाए तो ब्रामण हमे पद्मश्री ,पद्मभुषण देंगे विश्वविद्यालयो के कुलगुरु तक बनाएँगे , मंत्री प्रधानमंत्री बनाकर भारत रत्न भी देँगे परंतु अगर हम लोगो को जागरूक कर रहे है तो ये ब्रामण कतई बर्दाश्त नही करँगे। आगे राष्ट्रपिता महात्मा फुले कहते है की बहुजनो के शिक्षक भी बहुजन ही होने चाहिए । बहुजनो के शिक्षक ब्रामण होने का मतलब बहुजनो की शिक्षा को मिट्टी मे मिलाना है । डाँ बाबासाहब का भी यही कहना है डाँ बाबासाहब अंबेडकर के मुताबिक जातीयता जिनकी नस नस मे बसी है जो औरों को जानवर से बदतर समझते है , ऐसे लोगो को शिक्षक बनाकर और कितने दिन समाज का बंटाधार किया जाएगा (Dr Ambedkar vol 19 page 146-47)। राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने बहुजनो के लिए खोली हुई शाला कि मातंग समाज की 11 साल की छात्रा मुक्ता सालवे अपने निबंध मे कहती है की अगर हमे वेद पढ़ने का अधिकार नही है अगर ये हमारे धर्मग्रंथ नही तो फिर हमारा धर्म कौनसा है ? बाबासाहब अंबेडकर ने 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर मे बौद्ध धर्म मे प्रवेश करने की जो भूमिका रखी उसका पहला हुँकार मा. मुक्ता सालवे के इस सवाल मे देखा जा सकता है । राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने विश्व मे पहली बार " जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी " का सिद्धांत प्रस्तुत करके बहुजनो को हर क्षेत्र मे भागीदारी प्रदान करने का अनुरोध किया ( महात्मा फूले समग्र लेखन साहित्य page582 )। डाँ बाबासाहब अंबेडकर ने बंबई के पूरँदरे स्टेडियम मे 28 अक्तूबर 1954 मे दिए अपने भाषण मे कहा की बुद्ध, कबीर, और ज्योतिराव फुले मेरे तीन गुरु है । ज्योतिराव फुले गैरब्रामणो के सच्चे गुरु थे शुरू मे हम सभी बहुजन पहले राजनीति मे उन्ही के बताए हुए रास्ते पर चल रहे थे । आगे चलकर मराठा समाज के कुछ लोग हमसे बिछड़ गए कोई कांग्रेस मे तो कोई हिंदू महासभा मे गए । कोई चाहे जहा भी जाए लेकिन हम ज्योतिराव फुले के रास्ते से ही जाएँगे (संघर्षासाठि मुलनिवासी भारत 9 अप्रैल 2006) । राष्ट्रपिता महात्मा फुले ने जीवन भर मूलनिवासी बहुजनो को ब्रामणवाद के चँगुल से बचाने और उन्हे जागरूक करने का कार्य किया । उनके कार्य से प्रभावित बंबई मे लाखो लोगो ने राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले को महात्मा की उपाधि दी ऐसे महान क्रांति के महानायक क्रांतिसुर्य राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले के महापरिनिर्वाण दिवस   (28  नवंबर 1890) पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन